जयमङ्गल-अट्ठगाथा (हिन्दी-पाली)

जयमंगल अष्टगाथा भगवान बुद्ध के जीवनकाल की प्रसिद्ध आठ सच्ची घटनाएँ हैं, जिनका स्मरण करके शीलवान मनुष्य अपना तथा औरों का मंगल साधते हैं।

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ये प्रमुख आठ घटनाएँ इस प्रकार से कही गई है –

बाहुं सहस्समभिनिम्मित सावुधन्तं,
गिरिमेखलं उदितघोरससेनमारं।
दानादि-धम्मविधिना जितवा मुनिन्दो, 
तं तेजसा भवतु ते जयमङ्गलानि ॥१॥

गिरिमेखला नामक गजराज पर सवार शस्त्र-सज्जित सहस्र-भुजाधारी (हजारों हाथों वाले के समान) मार ( राग, द्वेष, मोह रूपी सेना) को उसकी भीषण सेना सहित जिन मुनीन्द्र (भगवान बुद्ध) ने अपनी दान आदि धर्म पारमिताओं (पार ले जाने वाले साधन) के बल पर जीत लिया, उनके तेज प्रताप से तुम्हारी जय हो ! तुम्हारा मंगल हो!! ॥१॥

मारातिरेकमभियुज्झितसब्बरत्तिं,
घोरम्पनालवकमक्खमथद्धयक्खं।
खन्ती सुदन्तविधिना जितवा मुनिन्दो,
तं तेजसा भवतु ते जयमङ्गलानि ॥२॥

मार से भी बढ़ चढ़ कर सारी रात युद्ध करने वाले, अत्यंत दुर्धर्ष (मुश्किल से वश में होने वाले) और कठोर हृदय आलवक नामक यक्ष को जिन मुनीन्द्र (भगवान बुद्ध) ने अपनी शांति और संयम के बल से जीत लिया, उनके तेज प्रताप से तुम्हारी जय हो ! तुम्हारा मंगल हो!! ॥२॥

नालागिरिं गजवरं अतिमत्तभूतं,
दावग्गि-चक्कमसनीव सुदारुणन्तं।
मेत्तम्बुसेक-विधिना जितवा मुनिन्दो,
तं तेजसा भवतु ते जयमङ्गलानि ॥३॥

दावाग्नि-चक्र (जंगल की भीषण आग) अथवा विद्युत की भांति अत्यंत दारुण  (भयंकर, प्रचण्ड) और विपुल मदमत्त  (शराब पिया हुआ) नालागिरि गजराज को जिन मुनीन्द्र (भगवान बुद्ध) ने अपने मैत्री रूपी जल की वर्षा से जीत लिया, उनके तेज प्रताप से तुम्हारी जय हो ! तुम्हारा मंगल हो!! ॥३॥

उक्खित्त खग्गमतिहत्थ-सुदारुणन्तं,
धावन्ति योजनपथङ्गुलिमालवन्तं।
इद्धीभिसङ्घतमनो जितवा मुनिन्दो,
तं तेजसा भवतु ते जयमङ्गलानि ॥४॥

हाथ में तलवार उठा कर योजनों (कई किलोमिटर) तक दौड़ने वाले अत्यंत भयावह अंगुलिमाल को जिन मुनीन्द्र (भगवान बुद्ध) ने अपने ऋद्धि-बल (मानसिक शक्ति) से जीत लिया, उनके तेज प्रताप से तुम्हारी जय हो ! तुम्हारा मंगल हो!! ॥४॥

कत्वान कट्ठमुदरं इव गब्भिनीया,
चिञ्चाय दुट्ठवचनं जनकाय-मज्झे।
सन्तेन सोमविधिना जितवा मुनिन्दो,
तं तेजसा भवतु ते जयमङ्गलानि ॥५॥

पेट पर काठ (लकड़ी) बांध कर गर्भिणी (गर्भधारण करने वाली) का स्वांग (नाटक) करने वाली चिञ्चा के द्वारा जनता के मध्य कहे गये अपशब्दों को जिन मुनीन्द्र (भगवान बुद्ध) ने अपने शांत और सौम्य (सुन्दर) बल से जीत लिया, उनके तेज प्रताप से तुम्हारी जय हो ! तुम्हारा मंगल हो!! ॥५॥

सच्चं विहाय मतिसच्चक-वादकेतुं,
वादाभिरोपितमनं अतिअन्धभूतं।
पञ्ञापदीपजलितो जितवा मुनिन्दो,
तं तेजसा भवतु ते जयमङ्गलानि ॥६॥

सत्य-विमुख (सच्चाई को नहीं जानने वाला), असत्यवाद (झूठ को बढ़ाने वाला) के पोषक, अभिमानी, वादविवाद परायण (झगडालू) और अहंकार से अत्यंत अंधे हुए सच्चक नामक परिव्राजक को जिन मुनीन्द्र (भगवान बुद्ध) ने प्रज्ञा-प्रदीप (ज्ञान रूपी दीपक) जला कर जीत लिया, उनके तेज प्रताप से तुम्हारी जय हो ! तुम्हारा मंगल हो!! ॥६॥

नन्दोपनन्द भुजगं विवुधं महिद्धिं,
पुत्तेन थेर भुजगेन दमापयन्तो।
इद्धूपदेसविधिना जितवा मुनिन्दो,
तं तेजसा भवतु ते जयमङ्गलानि ॥७॥

विविध प्रकार की महान ऋद्धियों (मानसिक शक्तियों) से संपन्न नन्दोपनंद नामक भुजंग (सांप) को अपने पुत्र (शिष्य) महामौद्गल्यायन स्थविर द्वारा अपनी ऋद्धि-शक्ति और उपदेश के बल से जिन मुनीन्द्र (भगवान बुद्ध) ने जीत लिया, उनके तेज प्रताप से तुम्हारी जय हो ! तुम्हारा मंगल हो!! ॥७॥

दुग्गाहदिट्ठिभुजगेन सुदट्ठ-हत्थं,
ब्रह्मं विसुद्धिजुतिमिद्धि बकाभिधानं।
आणागदेन विधिना जितवा मुनिन्दो,
तं तेजसा भवतु ते जयमङ्गलानि ॥८॥

मिथ्यादृष्टि (गलत दृष्टिकोण) रूपी भयानक सर्प द्वारा इसे गये, शुद्ध ज्योतिर्मय (प्रकाशवाला) ऋद्धि-सम्पन्न (शक्तिशाली) बक ब्रह्मा को जिन मुनीन्द्र (भगवान बुद्ध) ने ज्ञान की वाणी से जीत लिया, उनके तेज प्रताप से तुम्हारी जय हो! तुम्हारा मंगल हो!! ॥८॥

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