गणतंत्र-भारत की प्राचीन शासन प्रणाली | Republic Day Special 2022

प्रमुख 16 जनपद और 10 गणराज्य:


प्राचीन भारत जिसे पहले ‘जंबूद्वीप’ कहा जाता था, 16 महा जनपदों तथा 10 प्रमुख गणराज्यों में बसा हुआ था। महा जनपदों में अंग, मगध, काशी, कौसल, वज्जि, मल्ल, चेदि, वंस, पांचाल, कुरु, मत्स्थ, सूरसेन, अस्सक, अवन्ति, गांधार और कंबोज आदि थे।

प्राचीन गणराज्य में कपिलवस्तु के साथ के शाक्य, रामग्राम के कोलिय (कोली), कुशीनगर के मल्ल, पावा के मल्ल, पिप्पलिवन के मोरिय (मौर्य), अल्लकप्प के बुली, वेसाली के लिच्छवी, मिथिला के विदेह, सुंसुमारगिरि के भग्ग और केसपुत्त के कलाम थे।

यह सभी गणराज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश के पूर्वीभाग और बिहार राज्य के उत्तरीय भागों में बहुत छोटे-छोटे राज्यों के रूप में विकसित थे। गणराज्य शब्द से ही मालूम होता है कि राज्य का संगठन, लोगों के समूह या गठबंधन से किया जाता था। जैसा कि पाली साहित्य में कई स्थानों पर सभाओं और सभा परिषदों का वर्णन आया है। गणराज्य की सभा परिषद द्वारा ही गणराज्य के मुखिया का अभिषेक होता था।

पाली त्रिपिटक दीघ निकाय के महापरिनिब्बान सूत्त में सात गणराज्य और तीन अलग-अलग गणराज्यों का जिक्र आया है।

गणराज्यों की कार्यप्रणाली कैसी थी

बुद्धकाल में गणतंत्रों या गणराज्यों की शासन पद्धति तथा कार्यविधि के विषय में पाली बौद्ध साहित्य से महत्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं। एक समय मगध के राजा आजादशत्रु ने अपनी मंत्री वर्षकार को भगवान बुद्ध के पास वज्जियों के राज्य पर आक्रमण करने के संबंध में परामर्श के लिए भेजा था। उस समय बुद्ध ने आनंद को संबोधित करते हुए 7 अपरिहानीय धर्मों का उपदेश दिया था, जो बहुत महत्वपूर्ण थे।

सभा भवन तथा कार्यवाही

बौद्ध साहित्य के अनुसार जिस भवन में संघ या परिषद का अधिवेशन होता था, उसे ‘संस्थागार’ पाली में संथागार कहते थे। सदस्यों की संख्या भी निश्चित होती थी। सभी अपना मत दे सकते थे। वोट लेने की तीन प्रक्रिया थीं – (1) गूढ़क (2) सकर्णजल्पक (3) विवृतक

राजनीतिक कार्य

गणपरिषद का प्रशासन और न्याय कार्य संस्थागार में किया जाता था। परिषद के सदस्यों की संख्या 500 होती थी। इसमें सभी प्रस्ताव पास किए जाते थे।

गणतंत्र का संविधान

पालि जातक कथाओं से लिच्छवियों के संविधान की जानकारी प्राप्त होती है। एक पण्ण जातक में कहा गया है कि वैशाली गणराज्य में शासन करने के लिए 7707 राजा, उपराजा, सेनापति और भण्डारकों की नियुक्ति थी। इसके अलावा राजमहल, कूटागार, आराम और पुष्करिणियाँ भी थी।

गणराज्य का स्वरूप तथा अधिकारी

प्रत्येक गणराज्य में अधिकारियों का समूह। डाॅ. भण्डारकर के अनुसार लिच्छवियों का संघ एक राष्ट्रमंडल होता था। गणराज्य में शासनाधिकार नागरिकों को प्राप्त था, जिसमें प्रधान, उपप्रधान, सेनापति और कोषाध्यक्ष बनाए जाते थे।

न्याय-पद्धति

गणराज्यों की न्याय व्यवस्था बहुत अद्भुत थी। अट्ठकथाओं के अध्ययन से पता चलता है कि अपराधी को न्यायिक परीक्षण के लिए सबसे पहले विनिच्चय महामांत के पास भेजा जाता था। इसी तरह के तीन अधिकारियों (1) अट्ठकुलक (2) सेनापति और उपराज के पास अभियुक्त पहुंचता था। यदि वह निर्दोष होता था तू छोड़ दिया जाता था अन्यथा उसे दण्ड दिया जाता था। दण्ड प्रक्रिया ग्रंथ के अनुसार होती थी।

राजकीय शिष्टाचार

शाक्यों के गणतंत्र में राजकीय शिष्टाचार को विशेष महत्व दिया जाता था। अतिथि सत्कार में चांदी के पात्र में स्वर्ण चूर्ण अथवा स्वर्ण पात्र में रजत चूर्ण लेकर स्वागत वचन बोलते हुए राजा की समृद्धि, विस्तार, कल्याण, सुभिक्षता अर्थात धन-धान्य, संपन्न और रमणीयता का उल्लेख करते हुए उन्हें आवास में निमंत्रित किया जाता था।

राजा और प्रजा का संबंध

ललित विस्तार ग्रंथ के अनुसार गणतंत्र में राज और प्रजा का संबंध पिता-पुत्र के समान बताया गया है। जिस प्रकार पुत्र का पालन-पोषण किया जाता है, उसी प्रकार जनता का पालन प्रेम एवं स्नेहपूर्वक किया जाता था।

सेना एवं सेनापति

बौद्ध काल में गणराज्यों में चतुरङ्गिनी सेना का प्रयोग हुआ करता था। कुणाल जातक भाग पाँच, ललित विस्तार में विस्तार से वर्णन मिलता है। ऐसा विवरण मिलता है कि तलवार, धनुष, बाण, शक्ति, बर्धी, तोमर, भाले के साथ कुठार, पटि्ठस, बल्लम व अग्नि बाण, मूसल, पाश, गदा, चक्र, वज्र, कंटीली बर्छियां आदि शस्त्रों के अतिरिक्त शरीर की रक्षा के लिए वर्म एवं कवच नामक दो स्वरक्षा उपकरणों को धारण किया करते थे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में गणतन्त्रीय शासन प्रणाली बहुत प्राचीन एवं ऐतिहासिक है। भारत के संविधान निर्माताओं ने इसे किसी दूसरे देशों से नहीं लिया है, बल्कि यह तो हमारी अपनी है।

भारत में प्राचीन गणतन्त्र बहुत शक्तिशाली हुआ करते थे। राजा का कर्तव्य जनता को सुखी-समृद्ध बनाना होता था। आधुनिक भारतीय गणतन्त्र शासकों एवं विश्व के अन्य शासकों को भी उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।

सन्दर्भ ग्रन्थ: कपिलवस्तु के शाक्य
लेखक: डॉ. भिशु धम्मपाल थेरो जी
प्रस्तुति – डी. आर. बेरवाल’ धम्मरतन’
बुद्ध ज्योति बिहार, अजमेर (राज.)


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