एक धनी बूढ़ा आदमी मर गया। उसके दो पुत्र थे। कुछ समय तक दोनों सौमनस्यतापूर्वक संयुक्त परिवार में एक साथ रहे । तत्पश्चात् वे झगड़ने लगे और सारी संपत्ति को आपस में बांटकर अलग होने का फैसला किया। हर एक चीज आधा-आधा बांट दी गई और वे अपने काम में लग गए। परंतु समझौता हो जाने के बाद उन्हें एक छोटी सी पोटली मिली जिसे उनके पिता ने सावधानीपूर्वक छिपाकर रखी थी। उन्होंने पोटली खोली और उसके अंदर दो अंगूठियां मिलीं, एक बहुमूल्य हीरे से जड़ी हुई और दूसरी कुछ रुपयों की चांदी की मामूली अंगूठी।
हीरे को देखकर बड़े भाई के मन में लोभ जाग गया । वह अपने छोटे भाई को समझाने लगा, ‘मुझे ऐसा लगता है कि यह अंगूठी हमारे पिता की कमाई नहीं है अपितु उनके पूर्वजों से उत्तराधिकार में मिली है। इसी कारण उन्होंने इसे अपनी जायदाद से अलग रखा और क्योंकि हमारे परिवार में पीढ़ियों से रखी आ रही है, यह भावी पीढ़ियों के लिए रखी जानी चाहिए। इसलिए बड़ा होने के नाते, इसे मैं संभाल कर रखूगा। अच्छा हो तुम चांदी वाली अंगूठी रखो’।
छोटा भाई मुस्कराया और कहा, – ‘ठीक है, आप हीरे वाली अंगूठी से खुश रहें । मैं चांदी वाली से खुश रहूंगा!’ दोनों ने अंगूठियाँ अंगुलियों में डाल ली और अपने-अपने काम में लग गये। छोटे भाई ने अपने मन में सोचा, ‘यह तो मेरी समझ में आसानी से आता है कि मेरे पिता ने हीरे वाली अंगूठी रखी, यह इतनी मूल्यवान है लेकिन उन्होंने यह मामूली चांदी वाली अंगूठी क्यों रखी? उसने गौर से उस अंगूठी को देखा और उस पर खुदे हुए कुछ शब्द देखे –
“यह भी बदल जायगा”।
ओह! मेरे पिता की यह सीख है, “यह भी बदल जायगा।” उसने अंगूठी दुबारा पहन ली।
दोनों भाई जीवन के चढ़ाव-उतार का सामना करते रहे। जीवन में जब बसंत आता, बड़ा भाई अपने मन का संतुलन खोकर उछलने लगता । जब पतझड़ यानी बुरा समय आता तब अपना मानसिक संतुलन खोकर गहरी निराशा में डूब जाता । वह तनावग्रस्त हो गया और उसे उच्च रक्तचाप की बीमारी हो गयी । रात की अनिद्रा के कारण वह नींद की गोलियां, प्रशांतक (ट्रांक्विलाईजर) तथा अधिक तेज दवाएं लेने लगा । अंततोगत्वा वह ऐसी स्थिति में पहुँच गया जहां उसे बिजली के झटके देने की जरूरत पड़ी। यह हीरे की अंगूठी वाला भाई था।
चांदी की अंगूठी वाले छोटे भाई ने जब भी बसंत आया, इसका आनंद उठाया, इससे दूर नहीं भागा। उसने आनंद मनाया, परंतु अपनी अंगूठी को देखा और याद किया कि, ‘यह भी बदल जाएगा।’ और जब यह बदल गया तब वह मुस्कराता और कहता ‘ठीक है, मुझे पता था, यह बदलने वाला है, यह बदल गया, तो इससे क्या?’ जब पतझड़ यानी कुसमय आता, तब फिर वह अपनी अंगूठी को देखता और याद करता, ‘यह भी बदल जायगा’। और देखा सचमुच
बदल गया, गुजर गया।
जीवन के सभी उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख के बारे में वह जानता रहता कि कुछ भी शाश्वत नहीं है, हर एक चीज जाने के लिए आती है। वह अपने मन का संतुलन नहीं खोता और शांत, सुखी जीवन व्यतीत करता। यह चांदी की अंगूठी वाला भाई था।
पुस्तक : जीवन जीने की कला – विपश्यना साधना
लेखक – विलियम हार्ट