गर्भमंगल संस्कार कैसे करें

उद्देश्य:-

गर्भमंगल मानव जीवन का प्रारंभिक मंगल-कार्य है। यह मंगल कार्य गर्भ स्थिर होने के 3 मास के पश्चात अपनी सुविधानुसार किया जाता है। इस मंगल कार्य को भिक्षु, अनागारिक   या धर्माचार्य द्वारा संपन्न कराया जाता है। यह मंगल-कार्य  गर्भित-माता के गर्भ-स्थित शिशु के कल्याण के लिए किया जाता है।

पूजा की सामग्री:-

  1. भगवान बुद्ध की मूर्ति। (मूर्ति बहुत छोटी नहीं होनी चाहिये, तथा मूर्ति सुन्दर होनी चाहिये)
  2. यदि मूर्ति उपलब्ध न हो तो मढ़ी हुई तस्वीर भी पूजा हेतु प्रयोग की जा सकती है।
  3. मूर्ति को रखने के लिए मेज अथवा आसन, भिक्क्षु संघ के लिये आसन
  4. श्वेत वस्त्र (मेज पर बिछाने के लिये) यथा संभव नया
  5. मोमबत्ती व अगरबत्ती
  6. पुष्प व पीपल के पत्ते
  7. सफेद धागा
  8. मिट्‌टी का छोटा घड़ा अथवा धातु का लोटा (स्वच्छ जल भरा हुआ।)
  9. फल
  10. खीर /भोज्य पदार्थ/ग्लानपच्च सामर्थ अनुसार तथा श्रद्धानुसार

बुद्ध धम्म में सभी संस्कार कर्मकांड रहित होते हैं पूजा में प्रयुक्त सभी सामग्री विवेकपूर्ण तरीके से इस्तेमाल की जाती है।

विधि:-

स्वच्छ तथा ऊंचे स्थान पर भगवान बुद्ध की प्रतिमा को प्रतिष्ठापित करके पुष्पों से सुसज्जित करना चाहिए। एक लोटे में स्वच्छ जल भरकर उसमें बोधिवृक्ष (पीपल) के पांच पत्रों सहित भगवान के सम्मुख रखना चाहिए। मोमबत्ती, धूप, अगरबत्ती, फल-फूल आदि सुगंधित सामग्री को भी सजा कर रखें। तत्पश्चात गर्भित माता श्वेत वस्त्रों को धारण करके भगवान बुद्ध की प्रतिमा के सम्मुख यथावत प्रणाम करके मंगलकर्ता द्वारा त्रिशरण सहित पंचशील ग्रहण करती हैं। मंगलकर्ता गर्भित को अष्टशील पालन करने के लिए प्रवचन करते हैं। अंत में मंगलकर्ता द्वारा गर्विता पूजा भावना के साथ परित्राण-पाठ सुनती है। तत्पश्चात मंगलकर्ता को भोजन दान करती हैं तथा उनके उपदेश से लाभान्वित होती हैं। गर्भित माता को प्रसव तक अष्टशील के साथ-साथ निम्नलिखित बातों का भी पालन करना चाहिए।

गर्विता का शयन कक्ष शांत एवं शुद्ध वायु युक्त होना चाहिए ताकि वह सुखपूर्वक नींद लेकर तनावमुक्त रहें।
गर्भिता का खान-पान शुद्ध व सादा होना चाहिए उसे सुपाच्य भोजन को ग्रहण करना चाहिए तथा गरिष्ठ (भारी) खाद्य पदार्थों से विरत रहना चाहिए।
गर्भित माता को प्रतिदिन सुबह की सैर व हल्का व्यायाम करना चाहिए तथा भाई वस्तुओं को नहीं उठाना चाहिए।
गर्भिता को प्राकृतिक वातावरण में रहना चाहिए ताकि वह प्रदूषण मुक्त रहकर शुद्ध वायु ग्रहण कर सके। इससे वह प्रसन्नचित्त रहती है।
प्रसन्नचित्त रहकर कुशल धार्मिक जैसे धम्मपद, भगवान बुद्ध और उनका धर्म आदि पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए।
इस समय गर्विता को विशेष रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
गर्विता को मध्य तथा प्रमाद उत्पन्न करने वाले विषयों से व्रत रहना चाहिए। जिससे वह शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रहती हैं।

यदि शुद्ध घी को अशुद्ध (गन्दा, दुर्गंधयुक्त) पात्र में रखेंगे तो शुद्ध घी भी अशुद्ध अर्थात दुर्गंधयुक्त हो जाएगा। शुद्ध घी की शुद्धता बनाए रखने के लिए पात्र का भी शुद्ध होना अति आवश्यक है। इस प्रकार गर्भित मां को भी शुद्ध पात्र की तरह होना चाहिए तभी वह शुद्ध घी की तरह शारीरिक व मानसिक रूप से परिपूर्ण शिशु को जन्म दे सकती है। इसके लिए उपरोक्तलिखित सभी बातों के अनुसार जीवन-यापन करते हुए ही गर्भिता अपने आपको प्रसव तक शुद्ध पात्र की तरह रख सकती हैं।

Leave a Comment