RATANA SUTTA | रतन – सुत्त

THE JEWEL DISCOURSE

एक बार जब वैशाली नगरी भयंकर रोगों, अमानवी उपद्रवों और दुर्भिक्ष-पीड़ाओं से संतप्त हो उठी , तो इन तीनों प्रकार के दुःखों का शमन करने के लिए महास्थविर आनंद ने भगवान के अनंत गुणों का स्मरण किया ।



कोटीसतसहस्सेसु , चक्कवालेसु देवता ।
यस्साणं पटिगण्हन्ति , यञ्च वेसालिया पुरे।।
रोगा-मनुस्स-दुब्भिक्खं , सम्भूतं तिविधं भयं।
खिप्पमन्तरधापेसि, परित्तं तं भणामहे।।


शत-सहत्र-कोटि चक्रवालों के वासी सभी देवगण जिसके प्रताप को स्वीकार करते हैं तथा जिसके प्रभाव से वैशाली नगरी रोग अमानवी उपद्रव और दुर्भिक्ष से उत्पन्न त्रिविध भय से तत्काल मुक्त हो गई थी उस परित्राण को कह रहे हैं ।


यानीध भूतानि समागतानि ,
भुम्मानि वा यानि व अन्तलिक्खे ।
सब्बेव भूता सुमना भवन्तु ,
अथोपि सक्कच्च सुणन्तु भासितं ।।१।।

इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो भी प्राणी उपस्थित हैं वे सौमनस्य पूर्ण हों / प्रसन्न – चित्त हों और कथन / धर्म वाणी को आदर के साथ सुनें ।।

तस्मा हि भूता निसामेथ सब्बे ,
मेत्तं करोथ मानुसिया पजाय ।
दिवा च रत्तो च रहन्ति ये बलिं,
तस्मा हि ते रक्खथ अप्पमत्ता ।।२।।

यहां उपस्थित आप सभी ध्यान से सुनें और मनुष्यों के प्रति मैत्री भाव रखें । जिन मनुष्यों से आप दिन रात बलि / भेंट – पूजा – प्रसाद ग्रहण करते हैं प्रमाद रहित होकर उनकी रक्षा करें ।।

यं किञ्चि वित्तं इध वा हुरं वा,
सग्गेसु वा यं रतनं पणीतं।
न नो समं अत्थि तथागतेन,
इदम्पि बुद्धे रतनं पणीतं ।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।३।।

इस लोक में अथवा अन्य लोकों में जो भी धन-संपत्ति है, और स्वर्गों में जो भी अमूल्य-रत्न हैं, उनमें से कोई भी तथागत(बुद्ध)के समान (श्रेष्ठ) नहीं है।
सचमुच यह भी बुद्ध में उत्तम गुण – रत्न है !
इस सत्य कथन के प्रभाव से कल्याण हो !!

खयं विरागं अमतं पणीतं,
यदज्झगा सक्यमुनी समाहितो ।
न तेन धम्मेन समत्थि किञ्चि,
इदम्पि धम्मे रतनं पणीतं ।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।४।।

समाहित-चित्त से शाक्य-मुनि भगवान बुद्ध ने जिस राग – विमुक्त आश्रव – हीन श्रेष्ठ अमृत को प्राप्त किया था, उस लोकोत्तर निर्वाण -धर्म के समान अन्य कुछ भी नहीं है ।
सचमुच यह भी धर्म में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य कथन के प्रभाव से कल्याण हो !!

यं बुद्धसेट्ठो परिवण्णयी सुचिं,
समाधिमानन्तरिकञ्ञमाहु ।
समाधिना तेन समो न विज्जति,
इदम्पि धम्मे रतनं पणीतं ।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।५।।

जिस परम विशुद्ध आर्य – मार्गिक समाधि की प्रशंसा स्वयं भगवान बुद्ध ने की है और जिसे “आनन्तरिक” याने तत्काल फलदायी कहा है, उसके समान अन्य कोई भी समाधि नहीं है ।
सचमुच यह भी धर्म में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य कथन के प्रभाव से कल्याण हो !!

ये पुग्गला अट्ठ सतं पसत्था,
चत्तारि एतानि युगानि होन्ति,
ते दक्खिणेय्या सुगतस्स सावका,
एतेसु दिन्नानि महप्फलानि,
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।६।।

जिन आठ प्रकार के आर्य पुदग्ल (व्यक्तियों) की संतों ने प्रशंसा की है (मार्ग और फल की गणना से) जिनके चार जोड़े होते हैं, वे ही बुद्ध के श्रावक संघ (शिष्य ) दक्षिणा के उपयुक्त पात्र हैं । उन्हें दिया गया दान महाफलदायी होता है ।
सचमुच यह भी संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य कथन के प्रभाव से कल्याण हो !!

ये सुप्पयुत्ता मनसा दल्हेन ,
निक्कामिनो गोतमसासनम्हि।
ते पत्तिपत्ता अमतं विगय्ह ,
लद्धा मुधा निब्बुतिं भुञ्जमाना।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।७।।

जो आर्य पुद्गल भगवान बुद्ध के साधना शासन में दृढ़ता-पूर्वक एकाग्रचित्त और वितृष्ण हो कर संलग्न हैं, तथा जिन्होंने सहज ही अमृत में गोता लगा कर अमूल्य निर्वाण रस का आस्वादन कर लिया है और प्राप्तव्य को प्राप्त कर लिया है ( उत्तम अरहंत फल को पा लिया है )।
सचमुच यह भी संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो !!

यथिन्दखीलो पठविं सितो सिया ,
चतुब्भि वातेहि असम्पकम्पियो ।
तथूपमं सप्पुरिसं वदामि ,
यो अरियसच्चानि अवेच्च पस्सति।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।८।।

जिस प्रकार पृथ्वी में (दृढ़ता से) गड़ा हुआ इंद्र-कील (नगर-द्वार-स्तंभ) चारों ओर के पवन-वेग से भी प्रकंपित नहीं होता, उस प्रकार के व्यक्ति को ही मैं सत्पुरूष कहता हूं, जिसने (भगवान के साधना-पथ पर चल कर) आर्य-सत्यों का सम्यक दर्शन (साक्षात्कार ) कर उन्हें स्पष्टरूप से जान लिया है ; (वह आर्यपुद्गल भी प्रतेक अवस्था में अविचलित रहता है ) ।
सचमुच यह भी (आर्य )संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो !!

ये अरियसच्चानि विभावयन्ति ,
गम्भीरपञ्ञेन सुदेसितानि ।
किञ्चापि ते होन्ति भुसप्पमत्ता,
न ते भवं अट्ठममादियन्ति ।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।९।।

जिन्होंने गंभीर – प्रज्ञावान भगवान बुद्ध के द्वारा उपदिष्ट आर्यसत्यों का भली प्रकार साक्षात्कार कर लिया है, वे स्रोतापन्न यदि किसी कारण से बहुत प्रमादी भी हो जायं ( और साधना के अभ्यास में सतत तत्पर न भी रहें ) तो भी आठवां जन्म ग्रहण नहीं करते ।(अधिक से अधिक सातवें जन्म में उनकी मुक्ति निश्चित है ) ।
सचमुच यह भी (आर्य )संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो !!

सहावस्स दस्सन-सम्पदाय ,
तयस्सु धम्मा जहिता भवन्ति ।
सक्कायदिट्ठि विचिकिच्छितं च ,
सीलब्बतं वा पि यदत्थि किञ्चि ।।१०।।

दर्शन – प्राप्ति ( स्रोतापन्न फल प्राप्ति ) के साथ उसके ( स्रोतापन्न व्यक्ति के ) तीन बंधन छूट जाते हैं — सत्कायदृष्टि ( आत्म सम्मोहन ) , विचिकित्सा ( संशय ) , शीलव्रत परामर्श ( विभिन्न व्रतों आदि कर्मकांडो से चित्तशुद्धि होने का विश्वास ) अथवा अन्य जो कुछ भी ऐसे बंधन हों ।

चतूहपायेहि च विप्पमुत्तो ,
छच्चाभिठानानि अभब्बो कातुं ।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।११।।

वह चार अपाय गतियों ( निरय लोकों ) से पूरी तरह मुक्त हो जाता है । छह घोर पाप कर्मों (मातृ-हत्या, पितृ-हत्या, अर्हंत-हत्या, बुद्ध का रक्तपात, संघ-भेद एवं मिथ्या आचार्यों के प्रति श्रद्धा) को कभी नहीं करता ।
सचमुच यह भी (आर्य )संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो !!

किञ्चापि सो कम्मं करोति पापकं,
कायेन वाचा उद चेतसा वा ।
अभब्बो सो तस्स पट्ठिच्छादाय ,
अभब्बता दिट्ठपदस्स वुत्ता ।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।१२।।

भले ही वह / स्रोतापन्न व्यक्ति, काया, वचन अथवा मन से कोई पाप कर्म कर भी ले तो उसे छिपा नहीं सकता । भगवान ने कहा है – निर्वाण का साक्षात्कार करने वाला अपने दुष्कृत कर्म को छिपाने में असमर्थ है ।
सचमुच यह भी (आर्य )संघ में उत्तम – रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो!!

वनप्मपगुम्बे यथा फुस्सितग्गे ,
गिम्हानमासे पठमस्मिं गिम्हे ।
तथूपमं धम्मवरं अदेसयि ,
निब्बानगामिं परमं हिताय ।
इदम्पि बुद्धे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।१३।।

ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभिक माह में जिस प्रकार सघन वन प्रफूल्लित वृक्षशिखरों से शोभायमान होता है, उसी प्रकार भगवान बुद्ध ने श्रेष्ठ धर्म का उपदेश दिया जो निर्वाण की ओर ले जाने वाला तथा परम हितकारी है।
सचमुच यह भी (आर्य ) संघ में उत्तम रत्न है !
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो!!

वरो वरञ्ञू वरदो वराहरो ,
अनुत्तरो धम्मवरं अदेसयि ।
इदम्पि बुद्धे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।१४।।

सर्वश्रेष्ठ निर्वाण के दाता, श्रेष्ठ धर्म के ज्ञाता ,श्रेष्ठ मार्ग को दर्शाने वाले, सर्वश्रेष्ठ बुद्ध ने सर्वोच्च धर्म का उपदेश दिया है ।
सचमुच यह भी बुद्ध में उत्तम गुण रत्न है ।
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो ।।

खीणं पुराणं नवं नत्थि सम्मवं ,
विरत्तचित्तायतिके भवस्मिं ।
ते खीणबीजा अविरूल्हिछन्दा ,
निब्बन्ति धीरा यथा ‘ यं पदीपो ।
इदम्पि संघे रतनं पणीतं ,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ।।१५।।

जिनके सारे पुराने कर्म क्षीण हो गये हैं और नये कर्मों की उत्पत्ति नहीं होती ; पुनर्जन्म में जिनकी आसक्ति समाप्त हो गयी है, वे क्षीण – बीज / अरहंत तृष्णा – विमुक्त हो गये हैं । वे इसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त होते हैं जैसे तेल समाप्त होने पर दीपक ।
सचमुच यह भी आर्य संघ में श्रेष्ठ रत्न है ।
इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो।।

यानीध भूतानि समागतानि ,
भुम्मानि वा यानिव अन्तलिक्खे ।
तथागतं देवमनुस्सपूजितं ,
बुद्धं नमस्साम सुवत्थि होतु ।।१६।।

इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो प्राणी यहां उपस्थित हैं, हम सभी समस्त देवों और मनुष्यों द्वारा पूजित –
तथागत बुद्ध को नमस्कार करते हैं , कल्याण हो !

यानीध भूतानि समागतानि ,
भुम्मानि वा यानिव अन्तलिक्खे ।
तथागतं देवमनुस्सपूजितं ,
धम्मं नमस्साम सुवत्थि होतु ।।१७।।

इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो प्राणी यहां उपस्थित हैं, हम सभी समस्त देवों और मनुष्यों द्वारा पूजित –
तथागत और धर्म को नमस्कार करते हैं , कल्याण हो !

यानीध भूतानि समागतानि ,
भुम्मानि वा यानिव अन्तलिक्खे ।
तथागतं देवमनुस्सपूजितं ,
सघं नमस्साम सुवत्थि होतु ।।१८।।

इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो प्राणी यहां उपस्थित हैं, हम सभी समस्त देवों और मनुष्यों द्वारा पूजित – तथागत और संघ को नमस्कार करते हैं , कल्याण हो !

भवतु सब्ब मंगलं
सबका मंगल हो

रतन – सुत्त के बारे में और जानने के लिए यह वीडियो अवश्य देखें

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