पंचरंगी धम्म ध्वज का इतिहास
यह धम्म ध्वज बहुत विचार-विमर्श करके और दूर दृष्टि से बनाया गया है।
19वीं शताब्दी में विश्व के अनेक भिक्षुओं को ऐसा लगा कि बुद्ध धर्म का जैसा चिह्न सम्राट अशोक ने (चौबीस तिलीयों का चक्र सारनाथ के सिंह स्तम्भ पर) प्रस्थापित किया, वैसा ही झंडे के रूप में एक ध्वज (धम्म पताका) होनी चाहिए।
धर्म सभा में अनेक मत और विचार सामने आए। अंत में श्रीलंका की धर्म सभा में 1880 ई० में श्री आर० डी० सिन्हा द्वारा तैयार किया हुआ धम्म ध्वज विश्व स्तर पर सर्वसहमति से स्वीकार किया गया।
1888 ई० में धम्म ध्वज में बदलाव करके आगे यह रंग जोड़े गये। उनका क्रम बायें से दाहिने की ओर रखा गया।
यह क्रम नीला, पीला, लाल, सफेद और काषाय रंग है।
इन पाँच अलग रंग के अलावा बीच में चौबीस तिलीयों का अशोक चक्र है। लेकिन इस समय कई धम्म ध्वज पर चक्र नहीं दिखाई देता।
इस ध्वज के आगे पाँच रंग के टुकड़े (स्लिप्ट) और जोड़े गए हैं, इसका क्रम ऊपर से नीचे की ओर नीला, पीला, लाल, सफेद और कषाय है।
यही रंग आगे फिर से ऐसे क्यों लगाए गए?
यह रंग आगे इसलिए लगाए गए क्यूंकि यह रंग भगवान बुद्ध की विभिन्न शरीर धातुओं को धम्म रश्मियों के प्रतीक समझे जाते हैं।
धम्म ध्वज दिवस
धम्म ध्वज दिवस 8 जनवरी को मनाया जाता है
पंचरंगी ध्वज में रंगों का महत्व
नीला
यह रंग विशालता, दूरदृष्टिता और अनन्तता का प्रतीक माना जाता है।
बुद्ध का धर्म विशाल दूर दृष्टि और सागर की अनन्ता जैसा है। जिसके अन्दर सब कुछ समा लेने की क्षमता है। कोई भी आये और देखे। जो आदि (प्रथम), मध्य और अन्त में भी गुणकारक है, मानवता का कल्याण करने वाला है।
धर्म में यह त्याग के बाद ही विशाल बनाता है, इसलिए पंचरंगी ध्वज में यह रंग सम्मिलित किया गया।
पीला
यह रंग समृद्धि का प्रतीक माना जाता हैं। बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं ने, सम्राटों ने अपना मस्तक (सर) इस धर्म के आगे झुकाया और वे इस धर्म की शरण में गये।
उनको यह धर्म सोना, चाँदी, हीरे, मोतियों से भी बहुत सुन्दर (प्रिय) लगा। सोने का रंग पीला है। सोने जैसा मूल्य (किमत) देने वाला जीवन समृद्ध और सुखमय बनाने वाला धर्म-प्रकाश, मनुष्य के लिए अन्तिम समय तक उपयुक्त है।
भिक्षुओं का पीला वस्त्र यह ज्ञान समृद्धि, वैराग्य, विरक्तता, शुद्धता दर्शक है। इसलिए पंचरंगी ध्वज में यह रंग सम्मिलित किया गया।
लाल
यह रंग अग्नि का प्रतीक माना जाता है।
धर्म में प्रविष्ट होना है तो धर्म को ठीक तरह से समझ लेना होगा, तो अग्नि के समक्ष जाना पड़ेगा।
अपने अन्दर के राग, द्वेष, लोभ, मोह, काम, मत्सर इन षड् (छ:) विकारों की बली अग्नि में देनी चाहिए। तभी उस व्यक्ति को धर्म में प्रवेश मिलेगा।
कोई भी व्यक्ति सभी दुर्गुणों को जलाने के बाद ही सद्गुण ग्रहण कर सकता है। दुर्गुण जलाने की पहचान वाला यह लाल रंग पंचरंगी ध्वज में लिया है।
लाल हुआ लोहा जैस योग्य आकार लेता है। वैसे ही सभी मलों से रहित हुआ व्यक्ति ही धर्म सेवन कर सकता है।
सफेद
यह रंग पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। शुद्धता, निर्मलता और पवित्रता इनका प्रतीक सफेद रंग है।
अगर बुद्ध धर्म की शरण में जाकर उसका आचरण करना है तो उस व्यक्ति को शुद्ध दुष्कृत्य (पाप) रहित मनुष्य जैसा ही आचरण रखना चाहिए। इसके लिए उसे धर्म की आवश्यकता है।
उसे अपना जीवन शुद्ध और मंगलमयी बनाने की प्रेरणा यह रंग देता है। इसलिए यह रंग पंचरंगी ध्वज में सम्मिलित किया गया।
काषाय
यह रंग वैराग्य, विरक्तता, त्याग का प्रतीक माना जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति को धर्म के लिए, समाज के लिए त्याग करने की भावना यह रंग देता है। जिस प्रकार से भिक्षु विरक्त होते हैं। उनका यह महान त्याग है।
उपासकों को भी त्याग का थोड़ा-थोड़ा लाभ उठाना चाहिए। इसमें से ही धर्म-क्रान्ति होती है।
इसके लिए धर्म देसना (उपदेश), लेन-देन से धर्म के लिए पुत्र दान, धर्म, धन, ज्ञान, भोजन, वस्त्र, आवास, धम्म विहार दान ऐसे अनेक दानों के लिए तैयार होने की प्रेरणा यह रंग उपासकों को देता है।
इसलिए यह रंग पंचरंगी धम्म ध्वज में सम्मिलित किया गया है।
धम्म ध्वज वन्दना
ध्वजारोहण करते समय अक्सर त्रिशरण पंचशील की उच्चारण किया जाता है; किन्तु यह ठीक नहीं है। ध्वज फहराते समय निम्न गाथाएँ कहनी चाहिए-
वजिर संघात कायस्स अंगोरसस्स तादिनो।केसमस्सहि अक्खीनं नील टठानेहि रंसियो। नोलवण्णानिच्छरन्ति अनन्तकास भूदके ।। १।॥
वजिर संघात कायस्स, अंगीरसस्स तादिनो। छवितोचव अक्खीनं, पीत टठानेहि रंसियो। पीतवण्णा निच्छरन्ति अनन्तकास भूदके ॥२॥
वजिर संघात कायस्स, अंगीरसस्स तादिनो। मंस लोहित अक्खीनं, पीत टठानेहि रंसियो । पीतवण्णा निच्छरन्ति, अनन्ताकास भूदके ।।३॥
वजिर संघात कायस्स, अंगोरसस्स तादिनो । अटिठ दन्तेहि अक्खीनं, सेत टठानेहि रंसियो। शेतवण्णा निच्छरन्ति, अनन्ताकास भूदक ।।४॥
वजिर संघात कायस्स, अंगोरसस्स तादिनो।
तेसं-तेसं सरीरानं, नाना टठानेहि रंसियो। मज्जिटठका निच्छरन्ति अनन्ताकास भूदक ॥५॥
वजिर संघात कायस्स अंगीरसस्स तादिनो। तेसं-तेसं सरीरानं, नानाटठानेहि रंसियो ।
पभस्सरा निच्छरन्ति, अनन्ताकास भूदके ॥ ६॥
वजिर संघात कायस्स अंगीरसस्स तादिनों।
एवं सब्बण रंसिहि, निचछरन्तं विसो-दिसं ।
अनन्त अधो उद्धञ्च, अमतं व मनोहर ।
कायेन वाचा चित्तेन, अंगीरसस्स नमाम्यहं ॥७ ॥
धम्म ध्वज वन्दना का हिंदी अर्थ
वज्र के समान अभेद्य देह धारण करने वाले भगवान् बुद्ध के सिर, दाड़ी, केश और आँखों के नील स्थानों से प्रभावित होने वाला नीला रंग, समुद्र, धरती और आकाश में व्यापित हो रहा है ॥१॥
वज्र के समान अभेद्य देह धारण करने वाले भगवान् बुद्ध के पीले रंग के त्वचा से और आँखों के पीले स्थानों से प्रभावित होने वाला पीला रंग समुद्र, धरती और आकाश में व्यापित हो रहा है ॥२॥
वज्र के समान अभेद्य देह धारण करने वाले भगवान् बुद्ध के पास में आँखों में जो रक्त स्थानों से प्रभावित होने वाले लाल रंग, समुद्र, धरती और आकाश में व्यापित हो रहा है ।।३॥
वज्र के समान अभेद्य देह धारण करने वाले भगवान बुद्ध के दाँत से, अस्थियों से और आंखों में जो सफेद स्थानों से प्रभावित होने वाले शुभ्र रंग समुद्र, भूमि और आकाश में व्यापित हो रहा है ॥४॥
वज्र के समान अभेद्य देह धारण करने वाले भगवान् बुद्ध के अलग-अलग अवयवों से प्रभावित होने वाले मजिढढा या बादामी रंग, समुद्र, भूमि और आकाश में व्यापित हो रहा है ।।५।।
वज्र के समान अभेद्य देह धारण करने वाले भगवान् बुद्ध के सभी अंगों से ऊपर कहे पाँच रंगों के सम्मिश्रण से उत्पन्न प्रखर के तेजस्वीपन के प्रभाव से समुद्र, धरती और आकाश व्यापित हो रहा है ।६ ।
वज्र के समान अभेद और ऊपर के रंगों से परिपूर्ण हुआ अनन्त में, और दस दिशाओं से अमृत के समान सन्तोष देने वाला, भगवान बुद्ध के धम्म ध्वज को मैं मन, वाणी और शरीर से वन्दना करता हूँ॥७॥
बुद्ध धर्मावलम्बियों का धम्मध्वज
विभिन्न संस्कृतियों में ध्वजों का लौकिक एवं धार्मिक दोनों उद्देश्यों के लिए सहज ही उपयोग होता है। प्रारम्भिक बुद्ध साहित्यों में भी यह दर्शाने के साक्ष्य मौजूद हैं कि भारत में पुरातन समय से ही ध्वजों का उपयोग किया जाता था। ये सन्दर्भ यह बताते हैं कि केवल मानवों द्वारा ही नहीं बल्कि देवताओं और अन्य अतिमानवों द्वारा भी ध्वज उपयोग में लाये जाते थे। देवताओं के राजा सक्क एवं अन्य देवताओं के स्वयं के भी ध्वज थे।
महत्त्वपूर्ण उत्सवों पर ध्वजों का उपयोग किया जाता था उदाहरणार्थ, बोधिसत्व की माता रानी महामाया, अपने शिशु को जन्म देने के लिए जब अपने पितृगृह गई तो कपिलवस्तु से देवदह तक का मार्ग ध्वजों से सजाया गया था। बुद्ध साहित्य में यह भी उल्लेख है कि बुद्ध और उनके शिष्यों के स्वागत में मण्डपों का निर्माण किया गया और ध्वज फहराये गये बोधि वृक्ष के सम्मान में ध्वज का उपयोग किया गया। वह मार्ग, जिससे बोधि वृक्ष भारत देश से श्रीलंका लाया गया, के साथ बोधिवृक्ष की उस शाखा को भी ध्वजों से सुन्दरता से सजाया गया था। बरहुत ने यह वर्णन किया कि स्तूपों को भी चारों ओर से ध्वजों से सजाया गया था।
श्रीलंका में बुद्धधर्म के तीज-त्यौहारों को मनाने के लिए ध्वजों का उपयोग किया जाता था। महावंश जैसे विशाल शास्त्रों में यह अभिलिखित है कि राजा दुत्तगामिनी ने अनुराधापुर के रुवानवलिसय के महान बुद्ध स्तूपों के अवशेषों में शरण ली थी तब उनके साथ आये एक हजार आठ युवा बहुरंगी ध्वज धारण किये हुए थे। ये प्रमाण यह दर्शाते हैं कि ध्वज आदर-सम्मान, आनन्द और एकता के परिचायक थे।
प्वज उपयोग करने की इस पुरातन परम्परा को बनाये रखने के लिए. बुद्धानुगामियों ने भी अपना स्वयं का एक ऐसा ध्वज बनाया जो धार्मिक पवित्रता, दृढ़ता और एकता का परिचायक है। ये श्रीलंका के ही बुदानुयायो थे जिन्होंने बुद्ध धम्मध्वज की आवश्यकता को सबसे पहले महसूस किया और उसके निर्माण की पहल भी की। श्रीलंका में बुद्धधम्म के पुनरुत्थान आन्दोलन के विजयोत्सव के परिणामस्वरूप उन्नीसवीं सदी के अन्त में कुछ प्रतिष्ठित बुद्ध धर्मावलम्बी नेता, जिनमें भिक्षु एवं सामान्यजन भी थे, एकजुट होकर एक संगठन में परिवर्तित हो गये। यही संगठन कोलम्बो कमीटी कहलाया और इसमें पूजनीय हिक्कादूव श्री सुमंगल नायक थेर (अध्यक्ष) पूजनीय मिगेत्तुवत्ते गुणानन्द थेर, माननीय डॉन कैरालिस हेवाविदराना, महन्दीराम ए.पी. धर्मणुणवर्धन विलियम डे एम चार्लिस ए.डी सिल्या, एन.एस. फर्नान्डो, पीटर डे एबू, एच विलियम फर्नान्डो और करालिस पूजिधा गुणव्धन (सचिय) सम्मिलित चे वैशाख उत्सव मनाने के लिए सन् 1885 में इस कमीटी की एक तात्कालिक वार्ता की गई और बुद्धानुयायियों के अनवरत आन्दोलन के कारण ब्रिटिश प्रशासकों ने इस अवसर पर सार्वजनिक अवकाश घोषित किया। उन्होंने यह भी तय किया कि बुद्धानुयायियों के इस महत्वपूर्ण पर्व की प्रसिद्धि के लिए इस उत्सव पर ध्वजारोहण कर प्रचार-प्रसार किया जाये इसी प्रयोजन के लिए इस कोलम्बो कमीटी ने नये बुद्ध धम्मध्वज का निर्माण किया था।
यह ध्वज छ रंगों से बनाया गया था। ये रंग थे नीला, पीला, लाल, सफेद, गेरुआ और चमकदार सुनहरी रंग, जो कि उक्त पाँचों रंगों के मिश्रण से बना था ये रग बुद्धानुयायियों के लिए बड़े गौरवपूर्ण हैं।
बुद्ध, विश्व के ऐसे महानतम व्यक्तित्वों में से हैं इससे पहले इनके समान विश्व में कोई और महान व्यक्तित्व नहीं देखा गया, ये एक अत्यन्त प्रभावशाली महापुरुष थे। प्रारम्भिक बुद्ध साहित्यों में ऐसे लेख है कि बुद्ध शरीर पर महापुरुष होने के बत्तीस लक्षण और अवारह छोटे चित थे। उन लक्षणों में से एक लक्षण यह था कि उनके पूरे शरीर के चारों ओर से दिव्य किरण-पुंज और चमक निकलकर दिव्यप्रभा प्रसारित करते थे। प्रामाणिक पालि साहित्य में इसे सरीरप्पमा, व्यामप्पभा या सरीररमी कहते है। इस दिव्यप्रभा में छः रंग होते हैं जैसे –
नीला- बुद्ध के बालों और उनकी आँखों के नीले भाग से निर्गमित रग।
पीला- बुद्ध की त्वचा और उनकी आँखों के पीले भाग से निर्गमित रंग।
लाल – बुद्ध की मौस, रक्त और उनकी आँखों को लाल भाग से निर्गमित रंग।
सफेद – बुद्ध की अस्थियो, दाँतों और उनकी आँखों के श्वेत भाग से निर्गमित रंग।
गेरुआ-बुद्ध के शरीर के भिन्न-भिन्न भागों से निर्गमित रंग ।
चमकदार सुनहरी रंग- बुद्ध के शरीर के भिन्न-भिन्न भागों से निर्ममित रंगों का मिश्रण है।
इन रंगों को बुदानुयायियों ने महामानव बुद्ध की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए अपनाया और धम्म प्याज के लिए इन रंगों के चुनाव के मामले में अनेक बुद्धानुगामी और कोलम्बो कमीटी उचित ही थे। यह ध्वज पहली बार 17 अप्रैल, 1885 को जनसाधारण के लिए अर्पित किया गया, जब यह “सरसवी सन्दर्श नामक समाचार-पत्र में प्रकाशित हुआ। इसे सार्वजनिक रूप से सबसे पहले कोलम्बो के निकट कोटाहेना के दिपदत्तमाराम मन्दिर पर फहराकर उपयोग किया गया यह दिन वैशाख पूर्णिमा दिनांक 28 मई, 1885 था। अनुष्ठान के रूप में इसका औपचारिक ध्वजारोहण पूजनीय मिगेत्तुवत्ते गुनानन्द थेर के द्वारा किया गया यह दिन धार्मिक महत्व के अतिरिक्त श्रीलंका के बुद्धानुपायियों के लिए बड़ा गौरवपूर्ण है क्योंकि ब्रिटिश शासनकाल के अन्तर्गत वैशाख पूर्णिमा का यह दिन ध्वजारोहण के प्रथम दिवस और सार्वजनिक अवकाश के रूप में चिडित किया गया।
मूल धम्मध्वज में हेनरी स्टील ओलकॉट, जो कि श्रीलंका में बुद्ध धम्म की शिक्षा के आन्दोलन प्रमुख अग्रदूत एवं अन्वेषक थे, जिनकी सलाह पर घोड़े से बदलाव किये गये। उन्होंने सबसे पहले यह ध्वज सन 1856 में भेजा। ये वास्तव में ध्वज के निर्माण के विचार से बड़े प्रभावित थे, परन्तु ध्वज के आकार-प्रकार से वे खुशा नहीं थे। जो उन्होंने इस ध्वज के बारे में कहा वह इस बात से स्पष्ट है, जैसा कि कोलम्बो कमीटी ने इस झण्डे का जो प्रारूप तैयार किया है. यह किसी जहाज के असहज लम्बे स्टीमर पेनेन्ट जेसा है जो भी उत्सव या सभा के अभियान में लेकर चलने या परों पर लगाये जाने के लिए उपयुक्त नहीं है। उन्लान यह सलाह दी कि वे इसे अपने राष्ट्रीय ध्वज के जैसे सामान्य आकार का बनाया गया आवश्यकतानुसार बदलाव किये गये, और तात्कालिक प्रतिनिधि भिक्षुओं के द्वारा भी सर्वसम्मति से इसका अनुमोदन कर दिया गया। यह संशोधित धम्मध्वज 8 अप्रेल 1886 को सरसी रान् में प्रकाशित हुआ और पहीसंशाधित धम्मध्वज सन 1886 को वैशाख पूर्णिमा के दिन फहराया गया। यही यह संशोधित धम्मायजो आज रामी बुद्ध धम्मोत्सयो में उपयोग में लाया जाता है। यह पम्मध्वज 1880 में अनागारिक धम्मपाल और हेनरी स्टील ओलकोट के द्वारा जापान में प्रवृत्त किया गया और बाद में ब्मा में भी प्रवृत्त हुआ।
यह धम्मावज जो श्रीलंका में आविष्कृत हुआ आज पूरे विश्व के बुद्धानुयायियों का पम्म्यज बन चुका है । शायद आप सभी को ध्यान हो कि यह “द वर्ल्ड फैलोशिप ऑफ बुद्धिष्ट्स” के संस्थापक अध्यक्ष दिवगत प्रोफेसर जी. पी. मलालासेकेरा की दूरदृष्टि का परिणाम था। उन्होंने यह प्रस्ताव “द वस््ड फैलोशिप ऑफ बुद्धिष्टस की उद्घाटन सभा में 25 मई 1950 में श्रीलंका के केंद्रीय शहर में दिया था जहां 20 विभिन्न राष्ट्रो से आये हुए 139 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था और तभी से यह धम्मण्वज बुद्ध की करुणा, एकता और दृढता के प्रतीक के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है। इसी कारण से “द
वर्ल्ड फैलोशिप अफि बुद्धिष्ट्स” द्वारा यह बुद्ध धम्मावज महत्त्वपूर्ण आधिकारिक प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि यह बुद्ध धम्मध्यज विश्व के सभी बुद्धधम्मानुयायियों के लिए अत्यधिक पादन और गौरवपूर्ण माना जाता है इसीलिए सभी बुद्धधम्मानुयायियों को इस बुद्ध धम्मायज का पूरे प्राणपण से सम्मान करना चाहिये और इसको अपने राष्ट्रीय गज की तरह में लाना धाहिये। इस ध्वज को निर्माण, रखरखाव और आरोहण के समय सुरक्षा संरक्षा और सम्मान का पूरी सतर्कता और सावधानी से ध्यान रखा जाना चाहिये। विशेषत इस ध्वज का एक मानक माप भी निश्चित किया जाना चाहिये और इसका माप सामान्यतः अपने राष्ट्रीय ध्वज की तरह ही रखा जाना चाहिये। ध्वज के रंगों को भी सैद्धान्तिक रूप से
व्यवस्थित किया जाना चाहिये प्रारम्भिक पाँचों रंगों का प्रदर्शन लम्बाई में और छोटे-छोटे समान आकार के
पारी दार समुह में निम्नलिखित क्रम से रखा जाना चाहिये
नीला, पीला लाल सफेद और गेरुआ। छठा रंग जो कि उकत सभी रंगो का मिश्रण है जिसे बर्गा के आकार में समान भागों में विभाजित करके वर्गक्रमानुसार नीले रंग से प्रारम्भ करके गरु रग पर समापत करना चाहिये। जब इस बज को ध्वजस्तम्भ पर आरोहित किया जाये तब उस ध्वजस्तम्भ को पतले और नीली पारी पर स्थापित किया जाना चाहिये। समानत जब इसे किसी रस्सी पर फहराया जाये तो रस्सी को नीली पारी से बाधा जाये। यह अभिलेख जो यहां दिया गया है वह यह बतायेगा कि हमारे इस बुद्ध धम्मध्वज का रूप-आकार कैसा होना चाहिये और इसे किस प्रकार से फहराया जाना चाहिये।
सनथ ननयक्कर
सचिव
धम्मदूत कार्यक्रम समिति, (द वर्ल्ड फेलोशिप ऑफ बुद्धिष्ट्स) एनसाइक्लोपीडिया ऑफ बुद्धिज्म
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Source: यह लेख भिक्षु निर्गुणानन्द थेरो द्वारा लिखी गई पुस्तक “वन्दना-पूजा-परित्राण पाठ” से प्रेरित है।