भगवान तथागत सम्यक सम्बुद्ध द्वारा सारे लोक के हित के लिए इस मैत्री सूत्र को बतलाया –
भिक्षु आनंद कहते हैं – ऐसा मेरे द्वारा सुना गया। एक समय भगवान बुद्ध श्रावस्ती नगर में अनाथपिंडक के जेतवनाराम में विहार करते थे। वहां भिक्षुओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा ‘भिक्षुओं!’
भिक्षुओं ने भी भदंत कहकर भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा – भिक्षुओं – मैत्री सूत्र विमुक्ति का अभ्यास करने, बढ़ाने, बार-बार करने, जुड़े हुए यान की तरह लगे रहने, आधार रूप में वस्तु के समान किए हुए रहने, अधिष्ठित करने, परिचय बढ़ाने और भली प्रकार अभ्यास्त होने में ग्यारह गुण हैं। कौन से ग्यारह? सो इस प्रकार से हैं-
मैत्री करने के ग्यारह गुण
- मैत्री करने वाला सुख पूर्वक सोता है।
- सुख पूर्वक जगता है।
- कभी बुरा सपना नहीं देखता।
- मनुष्यों में प्रिय होता है।
- अमनुष्यों में भी वह प्रिय होता है।
- देवता उसकी रक्षा करते हैं।
- अग्नि, विष या हथियार से उसे हानि नहीं पहुंचती है।
- उसका चित्त शीघ्र समाधिस्थ (एकाग्र) हो जाता है।
- उसका रूप निखरता है।
- वह होश पूर्वक अपने प्राण त्यागता है।
- उसकी सदगति होती है।
इस प्रकार भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को समझाया। मैत्री चित्त विमुक्ति का अभ्यास बार बार करना चाहिए। जुड़े हुए यान की तरह मैत्री की भावना करने में लगे रहना चाहिए। मैत्री को आधार रूप में वस्तु के समान किए हुए रहना चाहिए। दृढ़ता पूर्वक अधिष्ठित करना चाहिए। परिचय बढ़ाने और भली प्रकार से इसका अभ्यस्त होना चाहिए। इसी में मैत्री भावना करने वालों को उक्त ग्यारह गुणों की प्राप्ति होती है।
उन सभी भिक्षुओं ने प्रसन्न मन से भगवान की वाणी को अभिनंदन किया। सभी का मंगल हो!
श्रामण विनय मेत्तसुत्त
प्रस्तुति – डी. आर. बेरवाल ‘धम्मरतन’
बुद्ध ज्योति विहार, अजमेर।
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